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Friday, June 20, 2025
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बिहार कांग्रेस के नए अध्यक्ष बनें राजेश कुमार

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रांची। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने एक बड़ा फैसला लेते हुए अखिलेश सिंह को हटाकर दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजेश कुमार को राज्य अध्यक्ष बनाया है। राजेश कुमार वर्तमान में कुटुंबा विधानसभा सीट (आरक्षित) से विधायक हैं। यह निर्णय पार्टी की सामाजिक न्याय और दलित वोट बैंक को साधने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। इससे पहले, कृष्णा अल्लावरू को बिहार प्रभारी बनाया गया था, जिन्होंने कन्हैया कुमार के साथ ‘नौकरी दो, पलायन रोको’ अभियान चलाया था।

अखिलेश सिंह का बदलाव का संदेश

अखिलेश सिंह, जो भूमिहार समुदाय से आते हैं और राज्यसभा सांसद भी हैं, को लालू प्रसाद यादव का करीबी माना जाता है। वे 2022 में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, लेकिन चुनाव से पहले उनकी जगह एक दलित नेता को लाने का कदम पार्टी की जातिगत समीकरणों पर फोकस की ओर इशारा करता है। विश्लेषकों के मुताबिक, यह बदलाव महागठबंधन में आरजेडी के साथ सीट शेयरिंग की मुश्किल बातचीत को भी प्रभावित कर सकता है।

सीट शेयरिंग की चुनौती और आरजेडी का दबदबा

पिछले विधानसभा चुनाव (2020) में कांग्रेस को आरजेडी ने 70 सीटें दी थीं, जिनमें से केवल 19 पर जीत मिली। इसके उलट, आरजेडी ने अपने कोटे की 144 में से 75 सीटें जीतीं, जबकि सीपीआई-एमएल ने 19 में से 12 सीटों पर सफलता पाई। इस पृष्ठभूमि में, कांग्रेस इस बार अधिक सीटों की मांग कर रही है, लेकिन आरजेडी 150 सीटों पर चुनाव लड़ने को इच्छुक है। नए अध्यक्ष राजेश कुमार की भूमिका इन वार्ताओं में अहम मानी जा रही है।

दलित वोटर्स पर नजर

बिहार में दलितों की आबादी करीब 19.65% है, जो किसी भी पार्टी के लिए चुनावी समीकरण बदल सकती है। कांग्रेस ने इससे पहले अशोक चौधरी (दलित समुदाय) को अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे अब नीतीश कुमार के साथ जुड़ चुके हैं। राजेश कुमार के नेतृत्व में पार्टी दलितों और पिछड़ों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश करेगी। हालांकि, लालू यादव का सीधा संपर्क कांग्रेस हाईकमान से होने के कारण, सीट वार्ता में उनकी भूमिका निर्णायक हो सकती है।

क्या होगा महागठबंधन पर असर?

चुनाव पूर्व यह बदलाव महागठबंधन की एकजुटता पर सवाल खड़े करता है। आरजेडी और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर मतभेद सामने आए हैं, जबकि सीपीआई-एमएल जैसे छोटे दलों ने पिछले चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था। ऐसे में, कांग्रेस की यह रणनीति कितनी कारगर होगी और दलित नेतृत्व से पार्टी को कितना फायदा मिलेगा, यह चुनावी नतीजों पर ही स्पष्ट होगा।

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