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Thursday, July 31, 2025
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Birsa Munda आदिवासी गौरव: भगवान बिरसा मुंडा का अमर बलिदान

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Birsa Munda आदिवासी गौरव: भगवान बिरसा मुंडा का अमर बलिदान

बिरसा मुंडा ने 1895 में “उलगुलान” का बिगुल फूंका। यह विद्रोह केवल जमीन की लड़ाई नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने का एक संग्राम था।

9 June Martyrdom Day Birsa Munda : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ ऐसे नायक हैं, जिनके बलिदान ने न केवल अपने समुदाय को, बल्कि पूरे राष्ट्र को प्रेरित किया। भगवान बिरसा मुंडा, जिन्हें आदिवासी समुदाय “धरती आबा” (पृथ्वी के पिता) के रूप में पूजता है, ऐसे ही एक अमर नायक हैं। उनकी शहादत, जो मात्र 25 वर्ष की आयु में हुई, आज भी स्वतंत्रता, न्याय और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई का प्रतीक है। 9 जून, 1900 को रांची की जेल में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी गाथा आज भी लाखों लोगों के दिलों में जीवित है।

Birsa Munda का बचपन अभावों में बीता

15 नवंबर, 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू गांव में एक गरीब मुंडा परिवार में जन्मे बिरसा मुंडा का बचपन अभावों में बीता। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हटू ने उन्हें सादगी और मेहनत का पाठ पढ़ाया। बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा सालगा गांव में जयपाल नाग की देखरेख में हुई, और बाद में वे चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ने गए। इस दौरान, गरीबी के कारण उनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, और बिरसा का नाम “बिरसा डेविड” रखा गया। लेकिन मिशनरियों के धर्मांतरण के कुटिल खेल को समझने के बाद, बिरसा ने न केवल ईसाई धर्म का त्याग किया, बल्कि आदिवासी संस्कृति और अस्मिता को पुनर्जनन देने के लिए “बिरसैत” धर्म की स्थापना की।

उलगुलान: एक क्रांतिकारी संग्राम

19वीं सदी के अंत में, ब्रिटिश शासन और उनके द्वारा नियुक्त जमींदारों ने आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से वंचित करना शुरू कर दिया। जमींदारी प्रथा और भारी करों ने आदिवासी समुदाय को शारीरिक और मानसिक रूप से शोषित किया। बिरसा मुंडा ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और 1895 में “उलगुलान” (महाविद्रोह) का बिगुल फूंका। यह विद्रोह केवल जमीन की लड़ाई नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने का एक संग्राम था। बिरसा ने आदिवासियों को संगठित किया और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया। उनके भाषणों ने लोगों में स्वतंत्रता की अलख जगाई। उन्होंने घोषणा की, “विक्टोरिया रानी का राज खत्म, अब मुंडा राज शुरू!” इस नारे ने आदिवासियों में नया जोश भरा। बिरसा ने न केवल ब्रिटिश शासन को चुनौती दी, बल्कि सूदखोर महाजनों और मिशनरियों के शोषण के खिलाफ भी आवाज उठाई।

शहादत: एक अमर बलिदान

ब्रिटिश शासन के लिए बिरसा मुंडा एक बड़ा खतरा बन चुके थे। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और प्रभाव को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने कई बार उन्हें गिरफ्तार किया। 1895 में उनकी पहली गिरफ्तारी हुई, और 1897 में दो साल की कैद के बाद रिहा किया गया। लेकिन बिरसा ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ गुप्त बैठकों का आयोजन किया और उलगुलान को और मजबूत किया। 3 मार्च, 1900 को, अंग्रेजों ने एक बार फिर बिरसा को गिरफ्तार किया। इस बार उन्हें रांची की जेल में रखा गया, जहां 9 जून, 1900 को उनकी रहस्यमयी मृत्यु हो गई। कई इतिहासकारों और आदिवासी समुदायों का मानना है कि उन्हें जहर देकर मारा गया। उनकी शहादत ने उलगुलान को और प्रबल किया, और उनके बलिदान का परिणाम था कि 1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट लागू हुआ, जिसने आदिवासियों की जमीन की रक्षा की।

विरासत और प्रेरणा

बिरसा मुंडा की शहादत ने उन्हें आदिवासियों के बीच “भगवान” का दर्जा दिलाया। बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में उन्हें आज भी पूजा जाता है। उनके द्वारा स्थापित “बिरसैत” धर्म आज भी हजारों अनुयायियों द्वारा माना जाता है। बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के अवसर पर, 2024 में उनकी जन्मस्थली उलिहातू में एक फिल्म की शूटिंग शुरू होने की घोषणा की गई, जो उनके जीवन और संघर्ष को बड़े पर्दे पर दर्शाएगी। इसके अलावा, दिल्ली में सराय काले खां चौक का नाम “बिरसा मुंडा चौक” रखा गया, और उनकी प्रतिमा का अनावरण किया गया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बिरसा मुंडा को “सप्तर्षि मंडल का नक्षत्र” बताते हुए कहा कि उनकी स्वतंत्रता, न्याय और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई आज के युवाओं के लिए प्रेरणा है। उनकी गाथा हमें सिखाती है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो अपने समुदाय को शोषण से मुक्ति दिलाए और उनकी पहचान को संरक्षित रखे।

अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना

भगवान बिरसा मुंडा की शहादत केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि यह एक विचार का अमरत्व था। उनका उलगुलान आज भी हमें यह सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना और अपनी संस्कृति को संरक्षित करना कितना महत्वपूर्ण है। उनकी शहादत हमें प्रेरित करती है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों, साहस और संकल्प के साथ हर चुनौती का सामना किया जा सकता है। धरती आबा बिरसा मुंडा को कोटि-कोटि नमन।

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